आज बात करतें है फिल्म डिरेक्टर बासु चैटर्जी के बारे में। वैसे तो मै पुरानी फिल्में कम ही देखता था। भला डीवीडी और केबल कनेक्शन के दौर में होलिवुड फिल्मों का चलन एसा बढ गया था की पुछिए मत। हिंदी फिल्म ईंडस्ट्री में भी उन दिनों कुछ भी खास या नया नहीं हो रहा था। एक बार मुझे पुरानी गोलमाल फिल्म की ३ ईन १ डीवीडी दीखी। वह डीवीडी में अमोल पालेकर की दो ओर फिल्में 'छोटी सी बात' और 'बातों बातों में' भी थी। गोलमाल देखने के बाद मैने यह दो फिल्में भी बारी बारी देखी।
रियालिस्टीक फिल्में सिर्फ होलिवुड और हिंदी फिल्म ईंडस्ट्री के कुछ नए फिल्म डाईरेक्टर्स ही बना रहे थे। पेरेलल सिनेमा तो पुर्णतः विलय हो गया हो एसा लगता था। लेकिन रियालिस्टीक छोटी सी बात और बातों बातों में यह दोनो फिल्में मुझे गोलमाल से अधिक रियालिस्टीक लगी, अधिक जुडाव महसुस हुआ।
उसके बाद रजनीगंधा फिल्म देखने को मिली। फिर ध्यान गया की ईस फिल्म को भी बासुदा ने ही बनाया है। अब मुझे बासुदा यानी बासु चेटर्जी का काम बहुत ही आकर्षक लगने लगा।
बासुदा की फिल्मों का हीरो लार्जर देन लाईफ नहीं है। वह हीरोपंती नहीं करता। बिलकुल एक सामान्य ईंसान / कोमन मेन होता है। उसकी परेशानियां भी हमारी रोजमर्रा की तकलीफों जैसी ही है। उस परेशानियों का हल भी सामान्य होता है। (फिर भी, एसा सिर्फ फिल्मों में ही होता है!) बासुदा का हीरो गुंडों से लडता नहीं है, दूर रहता है या मार खाता है। लड्कीयों से आकर्षित तो बहुत होता है, लेकिन बेचारा कुछ कहने की हिंम्मत नहीं जुटा पाता। दोस्तों से सलाह-मशवरा करके हिम्मत तो जुटा लेता है लेकिन फिर भी हरबार पराश्त ही होता है। वह आज्ञाकारी होता है, छोटी मोटी नौकरी करता है, फिल्में देखता है, लोकल ट्रेनमें सफर करता है, छोटे छोटे सपनें देखता है... बिलकुल एसे ही, जैसे हम आम ईंसान होतें हैं।
बासुदा की फिल्मों मे दिखाने जानेवाली प्रुष्ट्भुमि यानी की बेकग्राउंड भी बहुत सीदासादा होता है। नायक-नायिका का घर और औफिस एसे होते है, मानों हमारा ही घर और औफिस हो। वही छोटे कमरे, खिडक़ीयां, शो पीस। याद किजीए रजनीगंधा के फूलों से महकता छोटा सा कमरा। या दरवाजे के बहार फुल लिए खडा टोनी ब्रिगेन्झा। या याद किजीए बसस्टोप पर खडी ओफिस गर्ल प्रभा नारायण।
उनकी फिल्मों का अंत या क्लाईमेक्स भी बाकी फिल्मों से अलग होता है। बाकी
डाईरेक्टर्स की फिल्मों की तरह बासुदा की फिल्मों का अंत को बढाया-चढाया
नहीं जाता। उनकी फिल्मों में रोजाना जीवन से हट कर एक दीन एसा आ जाता है,
जो खास बन जाता है। जैसे 'बातों बातों में' बहुत ही सामान्य तरीके से फिल्म
अपना सुखांत पाती है। कोई एक्शन, भागादौडी, ड्रामा, डाईलोगबाजी नहीं होती।
एकदम सामान्य तरीके से घटनाएं घटती जाती है। और यह सब बहुत योग्य लगता है।
एसा नहीं लगता की सिर्फ दर्शकों को अच्छा महसुस करवाने के लिए जबरन लडाई
या कोमेडी सिच्युएशन डाल दी गई हो। यह भी तो दर्शको के प्रति बासुदा की
प्रामाणिकता ही है!
बासु दा का अपने फिल्मों के क्लाईमेक्स के प्रति
एक फिलोसोफीकल विचार रखतें है। वे चाहतें है की दर्शक उनकी फिल्मों को
पुरा याद रखे.... ना की सिर्फ क्लाईमेक्स। जैसी की ह्रिषी दा की गोलमाल,
जिस के अंत में दर्शक हंस के लोटपोट हो जाते है। आपको या तो उस फिल्म की
शुरुआत यानी की ईंटर्व्यु याद होगा या अंत, जिसमें उत्पल दत्त पिस्तोल ले
कर अमोल पालेकर के पीछे भागतें है। बिच में हास्य से भरे किस्से है, लेकिन
जब फिल्म देखने बैठो तो याद आते है। जब कि, बासुदा कि फिल्मो को अधिक फील /
महसुस किया जा सकता है।
एक फिल्ममेकर के तौ पर अगर आप बासुदा जैसा ओर काम करना / देखना चाहते हो, तो आपको यह तय करना होगा -
टेकनीकली
और व्यावारिक तौर पर सोचा जाए तो एक कैमेरा ओन होते ही प्रति सेकेंड २४
फ्रेम के हिसाब से फिल्म की रील ईस्तमाल होने लगती थी। लाईट,
साउंड और
बाकी सारा खर्चा मिला कर वह एक क्षण हजारों रुपये का होता था। अब
प्रोड्युसर ईतना खर्चा करता है, मानों आप ही एक बडी रकम दे रहें हो... आप
क्या सोचते हो? आपकी फ्रेम में क्या होना चाहिए? धमाकों के बीच से या खुब
सुरत लड्कीयों के झुंड से स्लो मोशन में निकलता स्टाईलिश हीरो या बस की
लाईन में खडा, पसीना पोंछता हुआ सीदा सादा अरुण प्रदीप? उस हजारों रुपये के
एक शोट में एक रजनीघंधा के फुलों से भरा फुलदान होना चाहिए या लाखों रुपये
की स्टाईलिश कार?
आपको एसी थियेटर में अपने आधे दिन की कमाई दे कर एक फिल्म देखने को मिलती है, आप उसमें क्या देखना चाहोगे?
थोडी देर सब कुछ सब टेंशन भुला दे एसा - पैसावसुल ड्रामा, दिल धडक एक्शन, दिलको छु लेनेवाले डाईलोग?
लंबे समय तक अनुभव होती रहे एसी फ्रेश कहानीयां, गुदगुदाती रहें एसी घटनांए, हमारे जैसा ही नायक?
बासु
दा ने अपनी पहली ही फिल्म 'सारा आकाश' से हींदी फिल्म ईंडस्ट्री को दिखा
दिया की, वर्ल्ड सिनेमा क्या होता है। एक लो बजेट रियालीस्टीक सिनेमा
उन्हों ने बनाई जो फिल्म मेंकिंग के तौर पर भी प्रेक्टिकल / व्यावहारिक थी
और एसा चलन आज भी चला आ रहा है। उन्हों ने अपना यही फिल्म मेकिंग स्टाईल
फोलो करते गए और कई फिल्मों का योगदान दिया।
रजनीगंधा, चित्तचोर, छोटी
सी बात, स्वामी, प्रियतमा, खट्टा मीठा, मंजिल, बातों बातों में, शौकिन, एक
रुका हुआ फैसला, चमेली की शादी, कमला की मौत ईत्यादी उनकी बहुप्रचलित
फिल्में थी। उनकी फिल्में जैसे की उसपार, एक रुका हुआ फैसला, चक्रव्युह,
फोरैन फिल्मों की रीमेक है। सारा आकाश, रजनीगंधा जैसी फिल्में साहित्य से
ली गई है।
उन्हों ने टीवी में जब पदार्पण किया तब भी उनकी सिरियलो ने हंगामा मचा दिया था।
उनकी मशहुर टीवी सिरियल है ... रजनी और ब्योमकेश बक्षी!
आखरी समय तक बासु दा फिल्में बनाने का प्रयत्न करते रहे।
- बासु दा ने सोलह साल तक कार्टुनिस्ट का काम किया था। उसके बाद वे फिल्म लाईन में आए!
- बासु दाने अपनी कई फिल्मों में केमियो रोल भी किया है!
- बासु दा ने पहली फिल्म उन्हों दो लाख की लोन ले कर बनाई थी!
- बासु दा के पिताजी रेल्वे के कर्मचारी थे। ईसलिए बासु दा का ट्रेन के प्रति बहुत लगाव था। उनकी कई फिल्मों में ट्रेन का सीन होता ही था। उनकी फिल्म दो लडके दोनों कडके, जिस में एक बच्चा दिखाया गया था जो हरेक ट्रेन के रुट और टाईम को जानता था!
- उन्हें अंदाजा रहता था की फलां फिल्म में कमाई नहीं हो पाईगी फिर भी वे वह फिल्म बनाते थे!
- उनकी कई फिल्मों में अमिताभ बच्चन का गेस्ट अपिरिय्न्स होता था!





No comments:
Post a Comment